गमछे और मफलर का समाजशास्त्र
- समीर रंजन
गमछे का उपयोग और विस्तार क्षेत्र, दोनों सिमट गए. अमीरों के पास दूसरे मौसमों की मार से बचने के लिए साधन तो थे, लेकिन ठंड से बचने (खासकर चेहरे को बचाने) का कोई कारगर उपाय नहीं था. बंदर टोपी से पहचान के छिप जाने का खतरा था, हैट हवा में सम्हलती नहीं थी और कैप और साधारण टोपियां सिर को ही बचा पाती थीं. शायद इसी समस्या से निपटने के लिए मफलर तैयार किया गया. गमछे में कट मारकर उसका शॉर्ट रूप या कह लीजिए कि उसका मॉडर्न रूप. लड़कियों के स्कार्फ का ही मेल वर्जन था मफलर. पर जिस देश में चेहरे से ही पहचान बनती हो, वहां चेहरे का यूं ढंक जाना लोगों को ज्यादा दिन तक रास नहीं आया. इसलिए मफलर की उमर भी हर सर्दी दर सर्दी कम होती चली गई और फिर एक दौर ऐसा भी आया जब वह दिखना बंद हो गया. उसने खुद को घर के अलमीरे में कैद कर लिया या फिर पोछा बनकर फर्श की गंदगी साफ करते हुए शहीद हो गया.
पर इस साल गमझे और मफलर, दोनों ने एक साथ फिर से द ग्रेट इंडियन सोसाइटी में इंट्री मार दी है. धनबाद के वासेपुर के गमछे से फिल्म वालों का अऩुराग पर्दे पर क्या दिखा, गमछा हर गर्दन पर फिर से झूमने लगा. इसी तरह इंडियन टाइगर ने पाकिस्तानी कैट को इम्प्रेस करने के लिए गले में मफलर क्या डाला, पूरा इंडिया ही गले में मफलर डालकर टाइगर बन कर कैट के शिकार पर निकल पड़ा. वाकई इस साल बॉलीवुड ने इंडिया की उसकी नग्न होती जवानी को तन ढंकने के दो पारंपरिक वस्त्र तो दे ही दिए हैं. हिंदुस्तान के युवकों के लिए ये जरूरी भी हो गया था. युवतियों ने तो पहले ही घूंघट विहीन होने के नुकसान को भांप लिया है. सन बर्न, डस्ट और पॉल्यूशन से बचने के साथ-साथ शिव सैनिकों से भी बचाव के लिए युवतियां पिछले कुछ सालों से गमछे के फी-मेल वर्जन का इस्तेमाल चेहरा छिपाने के लिए करने लगी हैं. पर नवयुवकों को अभी गमछे के असल फायदों को पहचानने में वक्त लगेगा. क्योंकि अभी तो बरसात ही बीती है...ठंड आनी बाकी है.
kool
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